06 जुलाई 2013

गंटी प्रसादम जिंदा रहेंगे

रेयाज उल हक

वे जिंदा रहेंगे.

इससे कोई फर्क नहीं पड़ता कि कल दोपहर में उनका अंतिम संस्कार कर दिया जाएगा. इससे भी कोई फर्क नहीं पड़ता कि हत्यारों के तलवारों और गोलियों ने उनकी गर्दन और सीने को इतना नुकसान पहुंचाया कि कम से कम तीन घंटों के ऑपरेशन के बावजूद उनकी जान बचाई नहीं जा सकी. इससे भी कोई फर्क नहीं पड़ता कि शहीदों, उनके परिजनों और जख्मी साथियों की फिक्र करने के लिए वे हमारे आसपास अब और नहीं होंगे. और न ही वे दिल्ली के जंतर मंतर पर अपनी गूंजती हुई आवाज से, अपने गुस्से और अपनी समझ से हमें मजबूत बना सकेंगे. इनसे कुछ भी फर्क नहीं पड़ता. शहीदों की जिंदगी उनकी हत्याओं के साथ खत्म नहीं होती. वह जारी रहती है. अपने लोगों के संघर्षों में. जुल्म और नाइंसाफी के खिलाफ, जनता की लड़ाइयों में फतह हासिल होने तक उनकी जिंदगियां सांस लेती हैं. जनता उन्हें प्यार करती है, हत्यारे उनसे नफरत करते हैं और शासक वर्ग उनसे डरता है.

यह वो डर ही है, जो राज्य और शासक वर्ग को जनता के प्यारे साथियों और नेताओं को जनता से छीन लेने की कोशिश करने पर मजबूर करता है. शासक वर्ग सपने देखता है कि नेताओं से महरूम अवाम भटक जाएगी, हाथ पर हाथ धरे बैठ जाएगी. फासीवादी शासक वर्ग की कोख से इसीलिए हत्यारे गिरोह पैदा होते हैं.

रिवॉल्यूशनरी डेमोक्रेटिक फ्रंट के उपाध्यक्ष, कमेटी फॉर द रिलेटिव्स एंड फ्रेंड्स ऑफ मार्टियर्स के कार्यकारी सदस्य और विप्लवी रचयितलु संघम (विरसम या रिवॉल्यूशनरी राइटर्स एसोसिएशन) से जुड़े गंटी प्रसादम पर चलाई गई गोलियां और तलवार के वार इसके सबूत हैं कि शासक वर्ग हमेशा इतिहास को भुला देता है.

वह भुला देता है कि अपने औपनिवेशिक कब्जे के लगभग 400 वर्षों के दौरान स्पेनी हत्यारों ने लातिन अमेरिका में दसियों लाख मूल निवासी इंडियनों की हत्याएं कीं, लेकिन जब 01 जनवरी 1899 को क्यूबा की आजादी के साथ लातिनी अमेरिका से आखिरी स्पेनी सैनिक स्पेन के लिए रवाना हुआ, तब 6 करोड़ से ज्यादा लोग आजादी का जश्न मनाने के लिए जिंदा थे. 

वह भुला देता है कि समाजवाद को उसकी पैदाइश के वक्त ही दम घोंट कर मार देने के मकसद के साथ 1918 की गर्मियों में सोवियत संघ में उतरे 13 हजार से ज्यादा अमेरिकी सैनिकों को दो साल के बाद हजारों मौतों और नुकसानों को अपनी झोली में डाले, नाकामी की शर्मिंदगी लेकर लौट जाना पड़ा था.

1945 से लेकर अब तक अमेरिका ने 40 विदेशी सरकारों का तख्तापलट करने की कोशिश की है, 30 से ज्यादा लोकप्रिय और चुनी हुई सरकारों को गिराया है और 25 से ज्यादा देशों पर बम गिराए हैं. इस सारी कोशिश में उसने बीसियों लाख लोगों और हजारों राजनीतिक-सामाजिक कार्यकर्ताओं की हत्याएं की हैं. लेकिन वह भुला देता है कि इतना कुछ करने के बावजूद स्थिरता के लिहाज से और भविष्य के लिहाज से वह दुनिया के इतिहास का सबसे कमजोर साम्राज्य है. जिन देशों को उसने भारी फौजी बूटों के नीचे दबा रखा है, वह उनके बारे में भी पूरे भरोसे के साथ कुछ नहीं कह सकता. इस वक्त, जिस तेजी से आप इन अक्षरों को पढ़ रहे हैं, उससे दोगुनी तेजी से, अमेरिकी साम्राज्यवाद के खिलाफ दुनिया भर में चल रही अवामी जंग के हिस्से के बतौर साम्राज्यवाद के किलों पर गोलियां दागी जा रही हैं.

ब्रिटिश औपनिवेशिक हुकूमत ने 23 मार्च 1931 को सूरज उगने से भी पहले तीन नौजवानों को फांसी पर चढ़ा दिया था. इस जुर्म में दुनिया भर में मशहूर कर दिए गए अहिंसा के कथित पैगंबर की भी सहमति थी. लेकिन आज, आठ दशक बीतने के बाद भी वे तीनों नौजवान इतने खतरनाक हैं कि दुनिया के सबसे बड़े लोकतंत्र को उनके लेखों, बयानों और चिट्ठियों वाली किताबें खरीदने और बेचने वालों पर देशद्रोह के मुकदमे लागू करने पड़ते हैं. उनमें से एक नौजवान का चेहरा इस देश में विरोध में तनी हुई हर मुट्ठी में से झांकता है: भगत सिंह का चेहरा.

28 जुलाई 1972 को जिस देश के एक अदना से थाने में पुलिस हिरासत में चारू मजुमदार को मार डाला गया, उसी देश के प्रधान मंत्री को चार दशकों के बाद यह ऐलान करना पड़ा कि चारू के सपनों और मकसद को अपने कंधों पर ढोने वाला, दुनिया के सबसे निर्धनतम और सबसे उत्पीड़ित तबका संपत्ति और लूट की आंतरिक सुरक्षा के लिए सबसे बड़ा खतरा बन गया है.

शासक वर्ग इतिहास को भूल जाए तो भूल जाए, इतिहास उसे कभी भूलता.

कल जिस जिंदगी को खत्म कर दिया गया, क्या उसकी ताकत को कोई खत्म कर पाएगा? उसकी जला दी गई आखिरी हड्डी के साथ, सड़क से लेकर अस्पताल के बिस्तर तक बहे खून की आखिरी बूंद के साथ, गुजरते हुए पल के साथ बुझ रही आखिरी सांस के साथ, कितने नारे, कितने संघर्ष, कितनी कहानियां, कितनी यातनाएं, कितने मोर्चे और कितने सपने होंगे, जिन्हें खत्म किया जा सकेगा? क्या सचमुच? क्या सचमुच कोई गोली ऐसी बनी है, जो कहानियों का कत्ल कर सके? कविताओं का? सपनों का? नारों का? विचारों का?

उनके आखिरी कदम एक शहीद के परिजन को अस्पताल में देखने जाने के लिए उठे थे. आज हम उनकी शहादत को सलाम करने जा रहे हैं.

संघर्ष और इंसाफ की उस आवाज को सलाम. आने वाले दिनों में, जब खेतों में पसीना बहाते किसानों और कारखानों में पिसते मजदूरों, मुसलमानों और दलितों, पिछड़ों, औरतों तथा उत्पीड़ित राष्ट्रीयताओं-उत्पीड़ित जनता-का कारवां लड़ाई के मोर्चे से जीत के नारों के साथ लौटेगा और अपने फौलादी सपनों और अपनी जीत के झंडों के साथ सड़कों और गलियों को, खेतों और कारखानों और वादियों और जंगलों को भर देगा, और जिन शहादतों को सबसे पहले याद किया जाएगा और सलामी दी जाएगी, तब किसी को गंटी प्रसादम के नाम की याद दिलाने की जरूरत नहीं पड़ेगी.

और उसके बाद भी, सारे जमाने के सभी शहीदों की तरह, वे जिंदा रहेंगे.

कॉमरेड गंटी प्रसादम.

लाल सलाम साथी.

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