10 जून 2014

इस जनादेश के पीछे

-दिलीप ख़ान

महीने भर से ज़्यादा लंबी चली मतदान प्रक्रिया के बाद आख़िरकार नरेन्द्र मोदी की अगुवाई में बीजेपी ने स्पष्ट बहुमत हासिल कर लिया। 1984 के बाद ये पहला मौका है जब किसी एक पार्टी के पास सरकार बनाने लायक सांसदों की गिनती है। राजग के घटक दलों को मिला दें तो नई सरकार काफ़ी आरामदायक हालत में पहुंच जाती है, जहां किसी भी तरह के जोड़-तोड़ और गुणा-गणित की कोई भी संभावना नज़र नहीं आती। हालत ये है कि इस चुनाव में जो दूसरी सबसे बड़ी पार्टी है उनके पास मुख्य विपक्षी दल की मान्यता हासिल करने के लिए ज़रूरी 10 प्रतिशत सीट भी नहीं हैं। कांग्रेस की ये अब तक की सबसे शर्मनाक पराजय है। यही हाल कई और पार्टियों के हैं, जिनमें वाम दलों के अलावा डीएमके, एनसीपी और बहुजन समाज पार्टी भी शामिल हैं। उत्तर प्रदेश में 19 प्रतिशत वोट हासिल करने के बाद भी बसपा खाता खोलने में नाकाम रही। समाजवादी पार्टी की तरफ़ से मुलायम सिंह और उनके कुनबे ने मिलकर 5 सीटें जीतीं और कांग्रेस को सोनिया और राहुल गांधी ने सूपड़ा साफ़ होने से बचा लिया।
जीत का जश्न (फोटो- इंडियन एक्सप्रेस)

26 मई को एनडीए के पूर्व घोषित प्रधानमंत्री पद के उम्मीदवार नरेन्द्र मोदी ने औपचारिक तौर पर भारत के प्रधानमंत्री की शपथ ले ली। चुनाव नतीजों और नई सरकार बनने के बाद देश के हालात पर पड़ने वाले असर को लेकर इस दौरान कई विश्लेषण आ चुके हैं। समर्थकों को उम्मीद है कि यूपीए-2 के दौरान जो भ्रष्टाचार के बड़े-बड़े मामले उजागर हुए वो मोदी राज में शून्य के स्तर पर पहुंच जाएंगे, शीघ्र ही भारत दुनिया के चोटी के शक्तिशाली देशों की सूची में धमक के साथ जगह बना लेगा और विदेशों से लौट आने वाले कालेधन के साथ ही भारत की ग़रीबी छू-मंतर हो जाएगी। कुल मिलाकर महंगाई, भ्रष्टाचार और दैनंदिन की अनेक समस्याओं के निजात दिलाने वाले के तौर पर वो नए प्रधानमंत्री की तरफ़ करिश्माई उम्मीद लगाए बैठे हैं। लेकिन मुश्किल ये है कि 60 महीने के लिए ‘सेवक’ चुनने के वायदे के साथ जनता को ‘अच्छे दिन’ का रिटर्न गिफ़्ट जो बीजेपी चुनाव परिणाम तक देने का भरोसा दिला रही थी, नतीजे के बाद उन्हीं 60 महीने को अचानक कैलकुलेटर पर दो से गुणा कर दिया गया। बीजेपी अब 120 महीने यानी 10 साल का समर्थन चाह रही है ताकि वो ‘अच्छे दिन’ के रथ को पूरे देश भर में दौड़ा सके।

निश्चित तौर पर ये अब तक के सबसे दिलचस्प चुनावों में एक था, जहां बहुराष्ट्रीय कंपनियों का किसी ख़ास पार्टी को प्रत्यक्ष समर्थन हासिल होने के साथ-साथ, पार्टी से बड़ी भूमिका में एक व्यक्ति को खड़ा करने और हिंदुत्व की उग्र राजनीति के सबसे उग्र चेहरे के तौर पर देश भर में मान्यता प्राप्त करने वाले नेता ने अपने भाषणों में हिंदुत्व से ज़्यादा विकास के सपनों को बेचा। बीजेपी के चुनाव अभियान में हिंदुत्व की रणनीति की कितनी मज़बूत तरंग देशभर में फैली थी, इस पर हम बाद में बात करेंगे, लेकिन ये पहली मर्तबा था जब इतनी बड़ी संख्या में लोग नरेन्द्र मोदी को भारतीय कार्यपालिका की सर्वोच्च कुर्सी पर बैठने का खुलकर विरोध कर रहे थे। 

राजनीतिक पार्टियों के अलावा स्वतंत्र विचारक, बुद्धिजीवी, पत्रकार, सामाजिक कार्यकर्ता, लेखक-कवि और देश के अलग-अलग हिस्सों में ऐसे तमाम लोग थे जिन्हें नरेन्द्र मोदी से खुली नाराजगी थी/है। देवेगौड़ा ने मोदी की जीत के बाद कर्नाटक और राजनीति छोड़ने की बात कही थी तो यू आर अनंतमूर्ति ने देश छोड़ने की। कई लेखकों ने मिलकर लोगों से आह्वान किया था कि भारतीय लोकतंत्र को बचाने के लिहाज से नरेन्द्र मोदी को सत्ता में आने से रोकना होगा। हालांकि वो तमाम कवायदें बेअसर साबित हुईं और नरेन्द्र मोदी सत्ता में आए। ‘अब की बार मोदी सरकार’ बनी।
यू आर अनंतमूर्ति: मोदी को नापसंद करने वाले, लेकिन इकलौते नहीं

आख़िरकार ऐसा क्या है कि इस बार तीव्र समर्थन के साथ-साथ तीव्र विरोध साथ-साथ देखे गए? बीजेपी कोई पहली बार चुनाव नहीं लड़ रही थी। विरोध में खड़े लोगों का एक बड़ा हिस्सा ऐसा भी था जिन्हें बीजेपी से नहीं बल्कि मोदी से दिक़्क़त थी। तो, इसकी वजह क्या है और मोदी में ऐसा क्या है? इन दोनों सवालों के सिरे आपस में गुंथे हुए हैं। पहली बात तो ये कि बीजेपी से ज़्यादा मोदी विरोध के कई स्पष्ट कारण थे। देश के पश्चिमी राज्य गुजरात में केशुभाई पटेल के बाद पहली बार मुख्यमंत्री की कुर्सी पर पदनशीं हुए हुए नरेन्द्र मोदी उस वक़्त प्रदेश से बाहर एक अजनबी नाम थे। उतने ही अजनबी जितने इस वक़्त आनंदीबेन पटेल हैं। उनकी पहली राष्ट्रीय पहचान 2002 में बनी, गुजरात दंगों के बाद। तब से लेकर आज तक नरेन्द्र मोदी के नाम के साथ 2002 चिपका हुआ है। हिंदुत्व की राजनीति में यक़ीन रखने वालों के लिए नरेन्द्र मोदी का नाम पावर बूस्टर का काम करता है जबकि सामाजिक सुरक्षा और जम्हूरियत में दबी आवाज़ों को मुखर करने वालों के लिए नरेन्द्र मोदी रोड ब्रेकर का। जाहिर है दोनों के लिए उनकी पहचान का प्रस्थान बिंदु 2002 है। इस पहचान में विकास-पिछड़ापन, गुजरात मॉडल की सफ़लता-विफलता से लेकर वो तमाम बातें महज पुछल्ले की तरह जुड़ी हैं लेकिन मूल नहीं हैं।

दूसरी बात ये कि बीजेपी से ज़्यादा आलोचना के घेरे में नरेन्द्र मोदी इसलिए आए क्योंकि पार्टी ने चुनाव के दरम्यान ख़ुद ही ऐसी रणनीति बनाई जिसमें पार्टी गौण हो गई और नरेन्द्र मोदी पार्टी के ऊपर चढ़ बैठे। 9 जून 2013 को गोवा में पार्टी की राष्ट्रीय कार्यकारिणी की बैठक में नरेन्द्र मोदी को चुनाव अभियान समिति का अध्यक्ष चुना गया। विरोध में पार्टी के बुजुर्ग लालकृष्ण आडवाणी के इस्तीफ़े और अगले दिन राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के मुखिया मोहन भागवत की समझाइश के बाद पार्टी में वापसी के छोटे प्रहसन के बावजूद बीजेपी ने नरेन्द्र मोदी में आस्था दिखाई और उनके कद को लगातार बढ़ाया गया। सितंबर 2013 में औपचारिक तौर पर नरेन्द्र मोदी को बीजेपी ने प्रधानमंत्री पद का दावेदार घोषित कर दिया। 

जाहिर है नरेन्द्र मोदी की राजनीतिक धुरी 2002 के जिस इतिहास के इर्द-गिर्द घूमती नज़र आती है वही इतिहास उनकी कद को पार्टी में बढ़ाने का कारण भी बना और उसी चलते बीजेपी के तीखे विरोध में लोगों ने अपनी आवाज़ें ज़ाहिर की। नरेन्द्र मोदी इस देश के हॉट केक बन गए तो दिल्ली में शीला दीक्षित के ख़िलाफ़ चुनाव लड़ने वाले आम आदमी पार्टी के राष्ट्रीय संयोजक अरविंद केजरीवाल ने वाराणसी में मोदी के ख़िलाफ़ उतरने का एलान कर दिया। आम आदमी पार्टी इस बार सबसे ज़्यादा सीटों पर उम्मीदवार उतारने वाली पार्टी बनी। 432 सीटों पर 'आप' ने चुनाव लड़ा और इनमें से 414 सीटों पर पार्टी की जमानत जब्त हो गई। इस पार्टी को देश भर की 414 सीटों पर जमानत जब्ती के कारण 1 करोड़ 3 लाख रुपए गंवाने पड़े।
कांग्रेस लड़ाई से बाहर थी

दिल्ली से सबसे ज़्यादा उम्मीद पालने वाली आम आदमी पार्टी को एक भी सीट नहीं मिल पाई, अलबत्ता पंजाब में 4 सीट जीतने में वो कामयाब रही। दिल्ली ने पिछली बार की तरह इस बार भी ये संदेश दिया कि वो किसी एक पार्टी को सारी सीटें देने में भरोसा रखती है। 2009 में कांग्रेस ने सातों सीटें जीती थी, इस बार ये सीटें बीजेपी की झोली में आईं। कांग्रेस किसी भी सीट पर मुकाबले में नहीं रही। तीन कैबिनेट मंत्रियों को छोड़ दें तो सारे मंत्रियों को हार का सामना करना पड़ा। नतीजतन पार्टी के भीतर हार के कारणों को लेकर कई तरह की व्याख्याएं पेश हुईं। ये चर्चा भी ज़ोर पकड़ी कि क्या ऐसी शर्मनाक पराजय के बाद कांग्रेस में कुछ आमूल-चूल परिवर्तन हो सकते हैं? क्या कांग्रेस टूट सकती है? 

लेकिन हुआ कुछ नहीं, सोनिया और राहुल गांधी ने हार की ज़िम्मेदारी लेते हुए इस्तीफ़े की पेशकश की और जैसा कि पूर्वानुमान था पार्टी ने यह पेशकश ठुकरा दी। मिलिंद देवड़ा ने राहुल गांधी की टीम पर भारतीय राजनीति की ज़मीन को नहीं समझ पाने का आरोप लगाया तो कई और नेताओं ने उसपर सहमति जाहिर कर दी। राहुल गांधी घिर गए, लेकिन पलटवार हुआ और पार्टी के दूसरे धरे ने ये दलील दी कि मिलिंद देवड़ा भी उस कोर टीम के हिस्सा थे, लिहाजा उन्हें किसी टीम पर आउटसाइडर की तरह हमला करने का कोई हक़ नहीं। यानी कांग्रेस हार मानने के बावजूद ये तय नहीं कर पा रही है कि इसका दोषारोपण भीतरी तौर पर कहां करे।

असल में कांग्रेस पूरे चुनाव अभियान के दौरान कभी जीतने की कोशिश करती भी नहीं दिखी। उनके नेताओं की देह भाषा और भाषणों के हर्फ़ पराजय भाव से भरे नज़र आ रहे थे। लोकसभा चुनाव से ठीक पहले सेमिफाइनल कहे जाने वाले पांच राज्यों के विधान सभा चुनावों में कांग्रेस की हार के बाद से कांग्रेस बैकफुट पर दिख रही थी। चुनाव से पहले ही दिग्विजय सिंह और कुमारी शैलजा जैसे नेताओं को राज्य सभा भेजने के फ़ैसले से ये जाहिर हो रहा था कि कांग्रेस मैदान में मज़बूत दावेदारी पेश करने से कतरा रही है। पी चिदंबरम ने अपने बदले बेटे को चुनाव लड़वाया और वो चौथे स्थान पर रहे। यूपीए सरकार के ख़िलाफ़ जो सत्ता विरोधी लहर थी उससे कांग्रेस सहित बाकी सहयोगी पार्टी वाकिफ़ तो थी लेकिन ये अंदाजा शायद ही किसी को था कि चुनाव नतीजों में उन्हें इतनी कम सीटों पर सिमटना पड़ेगा।

चुनावी नतीजे में मोदी लहर और मोदी सुनामी से ज़्यादा महत्वपूर्ण ये तथ्य है कि जनमानस के बीच मौजूदा सरकार को लेकर नकार का भाव बहुत ऊंचे स्तर तक पैठा था। बीजेपी ने इसकी बेहतर पैकेजिंग की। चुनाव के दौरान उनका सबसे ज़्यादा फोकस महंगाई और भ्रष्टाचार पर ही था। अन्ना हज़ारे के प्रदर्शन के बाद से भ्रष्टाचार बड़े चुनावी मुद्दे के तौर पर हर चुनाव में हावी रहा और आम आदमी पार्टी ने इस एजेंडे को और बढ़ाया। लेकिन, जनता के बीच कांग्रेस को हराने की जो सबसे मज़बूत दावेदारी पेश करने वाली पार्टी थी, वो थी बीजेपी। जाहिर तौर पर बीजेपी के पक्ष में लोग लामबंद हुए। पश्चिम बंगाल के कई इलाकों से ऐसी ख़बरें आईं कि वाम दलों के सुस्त प्रचार अभियान उनके पारंपरिक मतदाताओं को ये भरोसा दिलाने में नाकामयाब रही कि वो सचमुच राज्य में तृणमूल कांग्रेस के रथ को रोक सकते हैं। 

मुज़फ़्फ़रनगर में दंगे भड़काने पर गिरफ़्तार हुए इन विधायकों
को बीजेपी ने मंच पर सम्मानित किया
चुनाव में किसको जिताना है के बराबर ही महत्वपूर्ण मसला होता है कि किसको हराना है। वाम समर्थकों के एक बड़े हिस्से को लगा कि जिस आक्रामकता के साथ ममता बनर्जी पश्चिम बंगाल में ख़ुद को पेश कर रही है कि उसका जवाब सीपीएम और सीपीआई नहीं हो सकतीं। तो, जो वाम थे उन्होंने नरेन्द्र मोदी की आक्रामकता में आस्था दिखाई और मिदनापुर, आसनसोल से लेकर दार्जिलिंग तक गांव के गांव लेफ़्ट समर्थक बीजेपी की तरफ़ मुड़ गए। नतीजा ये हुआ कि राज्य में पिछले चुनाव में 4 फ़ीसदी वोट जीतने वाली बीजेपी इस बार 16 फ़ीसदी वोट जीत गई। अब ये सचमुच मोदी लहर का नतीजा है या फिर तृणमूल कांग्रेस को रोकने के लिए सही विकल्प ढूंढ़ने की छटपटाहट में एक मज़बूत विपक्ष की तलाश करते मतदाताओं का स्वाभाविक चुनाव, इस पर विशेषज्ञों में अब भी दो-फाड़ है।

लेकिन उससे भी बड़ा सवाल ये है कि क्या सचमुच मोदी के पक्ष में जो राजनीतिक माहौल बना वो स्वाभाविक था या फिर निगमीकृत मीडिया ने उन्हें अपने कंधे पर उठा रखा था? सेंटर फॉर मीडिया स्टडीज़ के एक अध्ययन का हवाला ले तो लोकसभा चुनाव अभियान के दौरान नरेन्द्र मोदी और बीजेपी को प्राइम टाइम में एक तिहाई से भी ज़्यादा का समय मिला। अध्ययन के मुताबिक़ नरेन्द्र मोदी को 2,575 मिनट यानी 33.21 प्रतिशत और राहुल गांधी को 4.33 प्रतिशत वक़्त मिला।

अगर इस गणित के लिहाज से देखे तो बीजेपी को कांग्रेस के मुकाबले साढ़े सात गुणा ज़्यादा समय टीवी चैनलों पर हासिल हुआ और जीती गई सीटों पर इस गणित को लागू करे तो नतीजा ये निकलता है कि बीजेपी को कांग्रेस के मुकाबले साढ़े 6 गुनी ज़्यादा सीटें हासिल हुईं। क्या हम ये माने कि इस बार चुनाव प्रचार दोहरे स्तर पर देखा जा रहा था? चुनाव क्षेत्र में और मीडिया के पर्दे पर। टीवी मीडिया ने हरसंभव कोशिश की कि चुनाव मद्दों की बजाए व्यक्तित्व केंद्रित हो जाए। 16 मई को जब चुनाव नतीजे जाहिर हो रहे थे तो एबीपी न्यूज़ ने पार्टी के बजाए मोदी, राहुल और केजरीवाल की तालिका बना रखी थी, जिसमें इनकी पार्टियों द्वारा जीती गई सीटों के आंकड़ें अपडेट हो रहे थे। पूरी रिपोर्टिंग बयान, आलोचना और प्रहसन, उपहास को उभारती नज़र आई। मोदी लार्जर दैन द पिक्चर के तौर पर टीवी पर्दे पर नज़र आए। 

ओपिनियन पोल पर लगे प्रतिबंध के वक़्त टीवी चैनलों पर नरेन्द्र मोदी के साक्षात्कार चलते थे। टाइम्स नाऊ पर बिना किसी अंतराल के लगातार तीन बार इंटरव्यू प्रसारित हुआ। शायद यह टीवी न्यूज़ मीडिया में यह पहली बार हुआ कि कोई साक्षात्कार लगातार घंटों रिपीट होता रहा। टीवी मीडिया पर जिनका मालिकाना हक़ है उनका बड़ा इस बार मोदी को प्रधानमंत्री के तौर पर प्रोजेक्ट करने की योजना में शामिल थे। ज़ी मीडिया के मालिक सुभाष चंद्रा हरियाणा में बीजेपी की एक रैली में मंच पर मौजूद थे और वहां से उन्होंने बीजेपी के पक्ष में वोट करने की अपील की। हालांकि इसके पीछे दो कारण बताए जा रहे हैं। पहला कारण तो सीधे राजनीतिक पक्षधरता का है, लेकिन दूसरा कारण ज़्यादा दिलचस्प है। जबसे ज़ी-जिंदल विवाद हुआ उसके बाद से मीडिया उद्योग पर नवीन जिंदल की बढ़ती दिलचस्पी के कारण सुभाष चंद्रा और नवीन जिंदल के बीच ब्लैकमेलिंग और मानहानि का टकराव बिजनेस हितों तक पहुंच गया। अब दोनों एक बाज़ार में प्रतिस्पर्धी के तौर पर आमने-सामने खड़े हैं। दोनों के बीच जिस तरह के तीखे संबंध हैं उसके चलते ये बताया जा रहा है कांग्रेस के उम्मीदवार नवीन जिंदल को हराने में मदद पहुंचाने के लिहाज से सुभाष चंद्रा ने बीजेपी के पक्ष में हरियाणा रैली में शिरकत की।  

मीडिया पर कई पार्टियों ने इस बार नाखुशी जाहिर की। लेकिन क्या मीडिया के समर्थन और एंटी इनकंबैंसी के बीच बीजेपी की मूल राजनीति में पैबस्त हिंदुत्व पीछे छूट गया? क्या सचमुच जाति और धर्म से ऊपर उठकर 'विकास की राजनीति' के पक्ष में लोगों के लामबंद होने का जो दावा बीजेपी कर रही है, वो सच है? भाषणों पर जाएंगे तो हिंदुत्व आपको गौण दिखेगा। ये शब्द बीजेपी से ज़्यादा विरोधी पार्टियों और आलोचकों के बयानों में ज़्यादा दिखेगा। हिंदुत्व, सांप्रदायिकता और धर्मनिरपेक्षता बीजेपी के शब्दकोश में इस बार कम इस्तेमाल होने वाले शब्द थे। लेकिन पार्टी की समूची रणनीति में ये काफी प्रमुख था। उत्तर प्रदेश में ऐतिहासिक 71 सीट जीतने वाली इस पार्टी ने ऐसा क्या कमाल किया कि बीएसपी जैसी पार्टी को खाता तक खोलना मुनासिब नहीं हो पाया? पश्चिमी उत्तर प्रदेश कभी भी पारंपरिक तौर पर बीजेपी का वोटर नहीं रहा, लेकिन पहली बार उस पूरी पट्टी पर बीजेपी का कब्जा रहा। 
हिंदुत्व कार्ड: अमित शाह के हाथ में यूपी का कमान 

अमित शाह को जबसे उत्तर प्रदेश का प्रभारी बनाया गया उसके बाद से राज्य में यह संदेश गया कि बीजेपी इस बार हिंदुत्व पर उग्र रूप अख़्तियार करने वाले नेताओं में भरोसा जता रही है। जाहिर तौर पर ये योजना काम कर गई। मुज़फ़्फ़रनगर और आस-पास के ज़िलों में भड़की सांप्रदायिक हिंसा में बीजेपी के तीन नेताओं के नाम एफआईआर होने के बाद उनमें से एक को जिस तरह आगरा में नरेन्द्र मोदी की रैली में सम्मानित किया गया, उसके स्पष्ट राजनीतिक संदेश थे। ऐसे संदेश में भाषणों में बरते जाने वाले शब्दों से ज़्यादा असर होता है।

पश्चिमी उत्तर प्रदेश में अजित सिंह सहित उनकी पार्टी का सफाया हो गया। मुज़फ़्फ़रनगर के बाद जाट वोट छिटकने के डर से यूपीए सरकार पर अजित सिंह ने दबाव बनाकर जाट को देश भर में ओबीसी का दर्जा दिया गया। लेकिन सब सिफर। जाट सहित तमाम हिंदुओं ने ख़ुद को हिंदुत्व के कंबल तले ढंक लिया। दरअसल नतीजे के बाद अमित शाह ने ने बड़ी दिलचस्प बात कही। उनसे जब पूछा गया कि उत्तर प्रदेश में जाति और धर्म पर राजनीति करने की रवायत रहने के बावजूद बीजेपी ने किस तरह हर वर्ग के वोट में सेंध लगाई, तो उनका जवाब था कि बीजेपी के खिलाफ रहने वाले तबके से ज़्यादा बड़ी संख्या उन लोगों की है जो बीजेपी के पक्ष में हैं। यानी, मुसलमानों, दलितों और धर्मनिरपेक्षता की राजनीति में यकीन रखने वाले मतदाताओं से कहीं बड़ी संख्या उन लोगों की है जो हिंदुत्व की अस्मिता में यक़ीन रखते हैं। बीजेपी का ज़ोर इसी पर था। ज़मीन पर धार्मिक आधार पर गोलबंदी और भाषणों में रोज़गार, महंगाई और भ्रष्टाचार के मुद्दे पर यूपीए सरकार को घेरना।
ये पहली मर्तबा है जब उत्तर प्रदेश से एक भी मुसलमान नहीं जीत सका। बीजेपी ने 282 सीटें जीती लेकिन इनमें एक भी मुसलमान शामिल नहीं है। गुजरात, महाराष्ट्र, उत्तर प्रदेश, हिमाचल प्रदेश, राजस्थान, मध्य प्रदेश और छत्तीसगढ़ का पूरा इलाका एक भी मुसलमान नहीं जिता सका। ये आज़ाद मुल्क़ में मुसलमानों के प्रतिनिधित्व के लिहाज से सबसे ख़राब आंकड़ा है। इस बार मात्र 22 मुस्लिम सांसद बन पाए हैं जिसने 1957 के 23 के रिकॉर्ड को पीछे छोड़ दिया। आखिर क्या संदेश है इस जनमत का? क्या नरेन्द्र मोदी का अनुवाद हिंदुत्व के रूप में नहीं हुआ? आख़िर क्यों एक नेता के नाम पर समूची पार्टी ने ख़ुद को लो-प्रोफाइल रखा? आख़िर क्यों सुषमा स्वराज ने जब ये कहा कि 'अब की बार बीजेपी सरकार' उचित होगा तो पार्टी के भीतर उनको अलग-थलग करने की कोशिश शुरू हुई? मुरली मनोहर जोशी और लालकृष्ण आडवाणी के तजुर्बे को किस बिनाह पर नरेन्द्र मोदी के सामने झुठला दिया गया?

26 मई को जब नरेन्द्र मोदी और उनका मंत्रीमंडल शपथ ले रहा था तो वहां मौजूद रहने वाले चेहरे में साध्वी रितंभरा से लेकर अशोक सिंघल तक हिंदुत्व के वो तमाम चेहरे शामिल थे जो राष्ट्रीय स्वयंसेवक, विश्व हिंदू परिषद और बजरंग दल के भारत को हिंदू राष्ट्र बनाने के मिले-जुले स्वप्न के ड्राइवर फोर्स हैं। यानी पार्टी संरचना में हिंदुत्व की पैठ साफ है। लेकिन, नरेन्द्र मोदी इस राजनीति को सतह पर इसलिए नहीं आने देना चाहते कि कहीं 2002 का जिन्न फिर से ना निकलकर उनके सामने खड़े हो जाए, इसलिए उदारवादी चेहरा ओढ़ते हुए पाकिस्तान के प्रधानमंत्री नवाज़ शरीफ़ सहित सार्क देशों के राष्ट्राध्यक्षों को न्यौता भेज दिया।  
शपथ ग्रहण में पहुंचे मेहमान

अब जबकि नरेन्द्र मोदी देश के प्रधानमंत्री बन चुके हैं और ये साफ़ लग रहा है कि कांग्रेस से अलग उनकी कोई आर्थिक नीति नहीं है तो चिंता का मूल विषय बन जाता है सांस्कृतिक और सामाजिक बदलाव। क्या बारीक स्तर पर आरएसएस देश की चेतना को हिंदुत्व की तरफ़ मोड़ने की कोशिश करेगा? नतीजों के बाद जिस तरह संघ के बड़े नेताओं के साथ बीजेपी के तमाम आला नेताओं की भेंट-मुलाकात का सिलसिला चल रहा था उसके बाद इससे इनकार करना तो मुश्किल हो जाता है कि पार्टी के राजनीतिक मामलों में संघ की दख़लंदाज़ी नहीं है। क्या आईटी एक्ट बनने के बाद से अभिव्यक्ति की आज़ादी पर जो हमले शुरू हुए हैं वो ज़्यादा तेज़ होंगे? प्रधानमंत्री बनने से पहले ही मोदी की आलोचना में फेसबुक और व्हाट्स एप पर संदेश भेजने वाले दो लोगों को जेल हो चुकी है। 

मीडिया से तमाम समर्थन हासिल होने के बावजूद और कई लोगों द्वारा मौजूदा चुनाव में मीडिया की स्पष्ट पक्षधरता को सबसे बड़ी बड़ी घटना करार दिए जाने के बावजूद नरेन्द्र मोदी ने मीडिया के एक धड़े पर हमला जारी रखा। उन्होंने कई दफ़ा 'न्यूज़ ट्रेडर्स' की आलोचना की। उनकी आलोचना में जो मीडिया रिपोर्ट्स थीं उनको उन्होंने वस्तुनिष्ट नहीं बताया। इसलिए आख़िर में हिटलर को याद करना असंगत नहीं होगा जिन्होंने कहा था कि कथित उदार प्रेस का काम जर्मनी के लोगों की बेहतरी की राह में गढ़ा खोदना है। तो, विकास की रफ़्तार तेज़ रहनी चाहिए, विकास से हटकर मीडिया को कोई और घटना याद नहीं करना चाहिए और शपथग्रहण समारोह में बैठे अंबानी-अडानी अगर देश की तरक्की में योगदान दे रहे हैं तो उनके पर्दे के पीछे की कोई ऐसी कहानी जाहिर नहीं होनी चाहिए जिससे ये रफ़्तार सुस्त हो।  

(समकालीन तीसरी दुनिया के नए अंक में प्रकाशित)

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