05 मई 2015

सोन का पानी लाल है...भाग-१

यूपी पुलिस की संगीनों पर चिपके हैं लोहिया की गुम थीसिस के पन्‍ने
अभिषेक श्रीवास्‍तव । सोनभद्र से लौटकर

इस साल अक्षय तृतीया पर जब देश भर में लगन चढ़ा हुआ था, बारातें निकल रही थीं और हिंदी अखबारों के स्‍थानीय संस्‍करण हीरे-जवाहरात के विज्ञापनों से पटे पड़े थे, तबपश्चिमी उत्‍तर प्रदेश के कुछ घरों में पहले से तय शादियां अचानक टाल दी गई थीं। कई अनब्‍याही लड़कियों के अभागे बाप बेमौसम बरसात और ओले से बरबाद फसल की भेंट गए, तो कई के भाई लेटी हुई गेहूं की बालियों और सड़े हुए आलू देखकर सदमे आ गए थे। खबरों की मानें तो बुलंदशहर, इटावा, बुंदेलखण्‍ड और मैनपुरी के किसान आगरा के पागलखाने के चक्‍कर लगा रहे थे। तबाही पूरब में भी हुई थी, लेकिन बनारस से सटे सोनभद्र में कहर कुदरत ने नहीं बल्कि पुलिस की लाठियों ने बरपाया था। इस इलाके में कम से कम दो शादियां ऐसी थीं जो अगर टली नहीं, तो उनमें रोका और कन्‍यादान करने के लिए लड़की का बाप नहीं आ सका।

फौजदार (पुत्र केशवराम, निवासी भीसुर) के बेटे का 22 अप्रैल को तिलक था। अगले हफ्ते उनके बेटे की शादी होनी थी। पड़ोस के गांव में 24 अप्रैल को देवकलिया और शनीचर (पुत्र रामदास, निवासी सुन्‍दरी) की बेटी की शादी थी। फौजदार समेत देवकलिया और शनीचर सभी 20 अप्रैल तक दुद्धी तहसील के ब्‍लॉक चिकित्‍सालय में भर्ती थे। देवकलिया की बेटी घर पर अकेली थी। 20 की शाम को अचानक फौजदार और शनीचर को गंभीर घायल घोषित कर के पांच अन्‍य मरीज़ों के साथ जिला चिकित्‍सालय में भेज दिया गया जबकि देवकलिया को दस मरीज़ों के साथ छुट्टी दे दी गयी। देवकलिया जानती थी कि चार दिन में अगर वह शादी की तैयारी कर भी लेगी तो उसके पति शनीचर को अस्‍पताल से नहीं छोड़ा जाएगा क्‍योंकि उत्‍तर प्रदेश के समाजवादी राज में अस्‍पताल का दूसरा नाम जेल है। समाजवाद की इस नयी परिभाषा को आए यहां बहुत दिन नहीं बीते हैं।

सोनभद्र उत्‍तर प्रदेश का दूसरा सबसे बड़ा जि़ला है। यहां की आधे से ज्‍यादा ज़मीन जंगल की है और दुनिया के सबसे पुराने जीवाश्‍म भी यहीं की विंध्‍य श्रृंखलाओं में पाए जाते हैं। आदिवासी बहुल यह जि़ला अपने आप में इकलौता है जिसकी सीमा चार राज्‍यों से एक साथ लगती है- छत्‍तीसगढ़, बिहार, झारखण्‍ड और मध्‍यप्रदेश। पिछले पांच महीने से अचानक इस जि़ले को 'विकास' नाम का रोग लग गया है। इसके पीछे पांगन नदी पर प्रस्‍तावित कनहर नाम का एक बांध है जिसे कोई चालीस साल पहले सिंचाई परियोजना के तहत मंजूरी दी गयी थी। झारखण्‍ड (तत्‍कालीन बिहार), छत्‍तीसगढ़ (तत्‍कालीन मध्‍यप्रदेश) और उत्‍तर प्रदेश के बीच आपसी मतभेदों के चलते लंबे समय तक इस पर काम रुका रहा और बीच में दो बार इसका लोकार्पण भी हुआ। समय बीतने के साथ इसकी लागत भी आरंभिक 23 करोड़ रुपये से बढ़कर 2800 करोड़ रुपये हो गयी। चूंकि 2014 के लोकसभा चुनाव ने तय कर दिया था कि इस देश पर वही राज करेगा जो 'विकास' का जुमला रटेगा, लिहाजा खुद को समाजवादी कहने वाले भी इस लोभ से अछूते न रह सके। पिछले साल जिस वक्‍त अखिलेश यादव की सरकार ने नयी-नयी विकास परियोजनाओं का एलान करना शुरू किया, ठीक तभी उनकी सरकार को इस भूले हुए बांध की भी याद हो आयी। कहते हैं कि उनके चाचा शिवपाल सिंह यादव ने इसमें खास दिलचस्‍पी दिखायी और सोनभद्र को हरा-भरा बनाने के नाम पर इसका काम शुरू करवा दिया। खुली निविदा के माध्‍यम से हैदराबाद की कंपनी हिन्‍दुस्‍तान इंजीनियर्स सिंडीकेट (एचईएस) इन्‍फ्रा प्राइवेट लिमिटेड को बांध निर्माण का सौ फीसदी ठेका दे दिया गया। दिसंबर में काम शुरू हुआ तो ग्रामीणों ने विरोध करना शुरू किया। प्रशासन से उनकी पहली झड़प 23 दिसंबर 2014 को हुई। इसके बाद 14 अप्रैल, 2015 को आंबेडकर जयन्‍ती के दिन पुलिस ने धरना दे रहे ग्रामीणों पर लाठियां बरसायीं और गोली चलायी। एक आदिवासी अकलू चेरो को छाती के पास गोली लगकर आर-पार हो गयी। वह बनारस के सर सुंदरलाल चिकित्‍सालय में भर्ती है। इस घटना के बाद भी ग्रामीण नहीं हारे। तब ठीक चार दिन बाद 18 अप्रैल की सुबह सोते हुए ग्रामीणों को मार कर खदेड़ दिया गया, उनके धरनास्‍थल को साफ कर दिया गया और पूरे जिले में धारा 144 लगा दी गयी।

फौजदार, शनीचर और देवकलिया उन पंद्रह घायलों में शामिल सिर्फ तीन नाम हैं जिन्‍हें 20 अप्रैल तक दुद्धी के ब्‍लॉक चिकित्‍सालय में बिना पानी, दातुन और खून से लथपथ कपड़ों में अंधेरे वार्डों में कैद रखा गया था। प्रशासन की सूची के मुताबिक 14 अप्रैल की घटना में 12 पुलिस अधिकारी/कर्मचारी घायल हुए थे जबकि सिर्फ चार प्रदर्शनकारी घायल थे। इसके चार दिन बाद 18 अप्रैल की सुबह पांच बजे जो हमला हुआ, उसमें चार पुलिसकर्मियों को घायल बताया गया है जबकि 19 प्रदर्शनकारी घायल हैं। दोनों दिनों की संख्‍या की तुलना करने पर ऐसा लगता है कि 18 अप्रैल की कार्रवाई हिसाब चुकाने के लिए की गयी थी। इस सूची में कुछ गड़बडि़यां भी हैं। मसलन, दुद्धी के सरकारी चिकित्‍सालय में भर्ती सत्‍तर पार के जोगी साव और तकरीबन इतनी ही उम्र के रुकसार का नाम सरकारी सूची में नहीं है। इसी तरह सुन्‍दरी गांव से दो महिलाएं 18 अप्रैल की घटना के बाद से ही लापता बतायी जा रही हैं जिनके बारे में तीन तरह की बातें सुनने में आयी हैं। एक स्‍थानीय पत्रकार नाम न छापने की शर्त पर दावे से कहते हैं कि इनकी मौत हो गयी है और इन्‍हें पुलिस ने मौके पर ही दफना दिया है। कुछ दूसरे पत्रकारों का मानना है कि वे दोनों 14 अप्रैल की घटना में नामजद थीं और अभी जेल में हैं। जिले के पुलिस अधीक्षक शिवशंकर यादव कहते हैं कि कोई भी लापता नहीं है, यह सब अफ़वाह है। पुलिस अधीक्षक की बात पर इसलिए आशंका होती है क्‍योंकि 14 अप्रैल की घटना में गोली से घायल अकलू चेरो के दो साथी लक्ष्‍मण और अशर्फी, जो अकलू के साथ बनारस तक गए थे, वे भी 20 अप्रैल तक लापता ही माने जा रहे थे जब तक कि खुद यादव ने इस संवाददाता के पूछने पर यह स्‍वीकार नहीं कर लिया कि वे दोनों मिर्जापुर की जेल में बंद हैं। इसका मतलब है कि जो लापता बताये जा रहे हैं वे जेल में भी हो सकते हैं। इसके अलावा 14 के हमले में घायल तीन और 18 के हमले में घायल छह ग्रामीणों (सरकारी सूची के मुताबिक) का कोई पता नहीं लग पाया है। इनमें से कुछ रॉबर्ट्सगंज के जिला चिकित्‍सालय में भर्ती हो सकते हैं। सूची में एक नाम 18 अप्रैल को घायल मनोज खरवार का है जो छत्‍तीसगढ़ के बलरामपुर का बताया गया है। अफ़वाह तो 18 अप्रैल को कुछ लोगों के मरने की भी थी, लेकिन यहां जिंदा लोगों की पहचान को लेकर ही इतना संशय है कि छत्‍तीसगढ़ के एक अखबार ने सोनभद्र जिले के सुन्‍दरी गांव के अकलू को भी छत्‍तीसगढ़ का बता दिया था।

अगर आपको लगता है कि 14 और 18 अप्रैल की घटना के संबंध में दी गयी उपर्युक्‍त सूचनाएं अधूरी हैं, तो आप बिलकुल ठीक सोच रहे हैं। जान जोखिम में डालकर भी अगर इतने ही तथ्‍य निकल पाएं, तो हम समझ सकते हैं कि सच्‍चाई को छुपाने के लिए प्रशासन की ओर से कितना ज़ोर लगाया जा रहा होगा। हम वास्‍तव में नहीं जान सकते कि बांध की डूब से सीधे प्रभावित होने वाले गांवों सुन्‍दरी, भीसुर और कोरची के कितने घरों में इस लगन बारात आने वाली थी, कितने घरों में वाकई आयी और कितनों में शादियां टल गयीं। कितने घर बसने से पहले उजड़ गए और कितने बसे-बसाये घर बांध के कारण उजड़ेंगे, दोनों की संख्‍या जानने का कोई भी तरीका हमारे पास नहीं है। दरअसल, यहां कुछ भी जानने का कोई तरीका नहीं है सिवाय इसके कि आप सरकारी बयानों पर जस का तस भरोसा कर लें। वजह इतनी सी है कि यहां एक बांध बन रहा है और बांध का मतलब विकास है। इसका विरोध करने वाला कोई भी व्‍यक्ति विकास-विरोधी और राष्‍ट्र-विरोधी है।

सोनभद्र के पुलिस अधीक्षक शिवशंकर यादव इस बात को बड़े सहज तरीके से समझाते हैं, ''पूरी पब्लिक साथ में है कि बांध बनना चाहिए। सरकार साथ में है। तीनों राज्‍य सरकारों का एग्रीमेंट हुआ है बांध बनाने के लिए... हम लोगों ने जितना एहतियात बरता है, उसकी पूरी पब्लिक तारीफ़ कर रही है।'' यादव का यह बयान एक मान्‍यता है। इस मान्‍यता के पीछे काम कर रही तर्क-प्रणाली को आप सोनभद्र के युवा जिलाधिकारी संजय कुमार के इस बयान से समझ सकते हैं, ''हमने जो भी बल का प्रयोग किया, वह इसलिए ताकि लोगों को मैसेज दिया जा सके कि लॉ ऑफ दि लैंड इज़ देयर...। आप समझ रहे हैं? ऐसे तो लोगों में प्रशासन और पुलिस का डर ही खत्‍म हो जाएगा। कल को लोग कट्टा लेकर गोली मार देंगे... आखिर हमारे दो गज़ेटेड अफसर घायल हुए हैं...! बेचारे एसडीएम ने अपनी जेब से दस लाख अपने इलाज पर खर्च किया है!''

यह बात अपने आप में चौंकाने वाली है कि एक एसडीएम ने अपने इलाज पर अपनी जेब से दस लाख रुपये कैसे खर्च कर दिए। ज़ाहिर है, होगा तभी खर्च किए होंगे। सुन्‍दरी, भीसुर और कोरची के आदिवासियों के पास अपने ऊपर खर्च करने को सिर्फ आंसू हैं। समय के साथ वे भी अब कम पड़ते जा रहे हैं। दुद्धी के अस्‍पताल में भर्ती जोगी साव (जिनका नाम घायलों की सरकारी सूची में दर्ज नहीं है) हमें देखते ही फफक कर रो पड़ते हैं। गला भर्रा जाता है। इशारे से दिखाते हैं कि कहां-कहां पुलिस की मार पड़ी है। पैर के ज़ख्‍म दिखाने के लिए हलका सा झुकते हैं तो कमर पकड़कर ऐंठ जाते हैं। इनकी उम्र सत्‍तर बरस के पार है। 18 अप्रैल की सुबह धरनास्‍थल पर ये सो रहे थे। जब पुलिस बल आया, तो नौजवानों की फुर्ती से ये भाग नहीं पाए। वहीं गिर गए। वे रोते हुए बताते हैं, ''ओ दिन हमहन रह गइली ओही जगह... एके बेर में पहुंच गइलन सब... धर-धर के लगावे लगलन डंटा। मेहरारू के झोंटा धर के लेसाड़ के मारे लगलन... लइकनवो के नाहीं छोड़लन...।'' जोगी साव के शरीर पर डंडों के निशान हैं। उनके आंसू नहीं रुकते जब वे हाथ दिखाते हुए कहते हैं, ''एक डंटा मरले हउवन... दू डंटा गोड़े में... तब जीप में ले आके इहां गिरउलन।'' यह पूछे जाने पर कि क्‍या कोई मुकदमा भी दर्ज हुआ है उनके खिलाफ़, वे बोले, ''मुकदमा त दर्ज नाहीं कइलन, बाकी कहलन कि अस्‍पताल में चलिए, जेल नहीं जाना पड़ेगा।''

जब हम 20 अप्रैल को दुद्धी अस्‍पताल के इस वार्ड में पहुंचे, तो कुल आठ पुरुष यहां भर्ती थे। महिला वार्ड में पांच महिलाएं थीं और अस्‍पताल के गलियारे में दो घायलों को अलग से लेटाया गया था। कुल दस पुरुषों में बस एक नौजवान था जिसका नाम था मोइन। बाकी नौ पुरुषों की औसत उम्र साठ के पार रही होगी। गलियारे में पहले बिस्‍तर पर जो बुजुर्ग लेटे थे, उनके चेहरे पर कोई भाव नहीं था। नाम- बूटन साव, गांव कोरची। इन्‍हें भी डंडे की मार पड़ी थी। चोट दिखाते हुए बोले, ''आप जनते के तरफ से हैं न?'' हां में जवाब देने पर बोले, ''हम लोगों को छोड़वा दीजिए घर तक''। और इतना कह कर वे अचानक रोने लगे। यह पूछने पर कि कब यहां से छोड़ने को कहा गया है, बूटन बोले, ''छोड़ेंगे नहीं... किसी को मिलने भी नहीं आने दे रहे हैं। बोले हैं यहीं रहना है, नहीं तो जेल जाओ।''

सुन्‍दरी में 18 अप्रैल की सुबह साठ-सत्‍तर साल के बूढ़ों के सिर पर डंडा मारा गया है। औरतों के कूल्‍हों में डंडा मारा गया है। जहूर को पुलिस ने इतनी तेज़ हाथ पर मारा कि तीन उंगलियां ही फट गयी हैं। पुलिस अधीक्षक यादव कहते हैं, ''सिर पर इरादतन नहीं मारा गया, ये ''इन्सिडेन्‍टल'' (संयोगवश) है।'' ''क्‍या तीनों बुजुर्गों के सिर पर किया गया वार ''इन्सिडेन्‍टल'' है?'' इस सवाल के जवाब में वे बोले, ''बल प्रयोग किया गया था, ''इन्सिडेन्‍टल'' हो सकता है। हम कोई दुश्‍मन नहीं हैं, इसकी मंशा नहीं थी।'' ''और 14 अप्रैल को अकलू के सीने को पार कर गयी गोली?'' यादव विस्‍तार से बताते हैं, ''पुलिस ने अपने बचाव में गोली चलायी। थानेदार (कपिलदेव यादव) को लगा कि मौत सामने है। वैसे भी हमारे यहां पहले एसडीएम पर हमला हो चुका है। सबसे पहले अकलू ने बांस की पटिया से थानेदार को मारा। फिर उसके भाई रमेश ने थानेदार के हाथ पर कुल्‍हाड़ी से हमला किया। पुलिस अफसर नीचे गिर गया। उसे लगा कि वह नहीं बच पाएगा, तो उसने रक्षा के लिए हवा में दो राउंड फायर किया।'' यह पूछे जाने पर कि हवा में फायर करने से अकलू की छाती के पास गोली कैसे लगी, यादव कहते हैं,''थानेदार ''लेड डाउन'' (पीछे की ओर झुका हुआ) था, ऐसी आपात स्थिति में ज्‍योमेट्री नहीं नापी जाती है। उसने खुद कहा कि उसे पता ही नहीं चला कि गोली कहां लगी है।''

यादव के मुताबिक आपात स्थिति में ''ज्‍योमेट्री'' नहीं नापी जाती है। उनके हिसाब से एकबारगी अगर मान भी लें कि पुलिस ने गोली ''आत्‍मरक्षा'' में चलायी और सिर पर डंडा ''संयोगवश'' चल गया, तो सवाल उठता है कि गांवों में घुसकर लोगों को पहाड़ तक खदेड़ देना, औरतों के साथ बदतमीज़ी करना, घरों पर हमला करना, उनके मुर्गे-मुर्गियां पकाकर खा जाना कौन सी गणित कहलाता है? यादव पूछते हैं, ''आप ही बताइए कौन सा घर तोड़ा गया। पुलिस आज तक गांव में नहीं घुसी है।'' डीएम भी उनकी बात का समर्थन करते हैं। ''और पीएसी?'' इससे भी वे इनकार करते हैं। यादव पलटकर कहते हैं, ''तब तो आपने यह भी सुना होगा कि छह लोगों को मारकर पुलिस ने दफना दिया है?'' हमारे इनकार करने पर वे दोबारा इस बात पर ज़ोर देते हैं। जिलाधिकारी संजय कुमार कहते हैं, ''हज़ारों मैसेज सर्कुलेट किए गए हैं कि छह लोगों को मारकर दफनाया गया है। इंटरनेशनल मीडिया भी फोन कर रहा है। एमनेस्‍टी वाले यही कह रहे हैं। हम लोग पागल हो गए हैं जवाब देते-देते। इतनी ज्‍यादा अफ़वाह फैलायी गयी है। चार दिन तक हम लोग सोये नहीं। ''  


कौन फैला रहा है यह अफ़वाह? जवाब में जिलाधिकारी हमें एक एसएमएस दिखाते हैं जिसमें 18 तारीख के हमले में पुलिस द्वारा छह लोगों को मार कर दफनाए जाने की बात कही गयी है। भेजने वाले का नाम रोमा है। रोमा सोनभद्र के इलाके में लंबे समय से आदिवासियों के लिए काम करती रही हैं। 14 अप्रैल की घटना के बाद जिन लोगों पर नामजद एफआइआर की गयी उनमें रोमा भी हैं। पुलिस को उनकी तलाश है। डीएम कहते हैं कि कनहर बांध विरोधी आंदोलन को रोमाजी ने अपना निजी एजेंडा बना लिया है। ''तो क्‍या सारे बवाल के केंद्र में अकेले रोमा हैं?'' यह सवाल पूछने पर वे मुस्‍करा कर कहते हैं, ''लीजिए, सारी रामायण खत्‍म हो गयी। आप पूछ रहे हैं सीता कौन है।'' डीएम और एसपी दोनों अबकी हंस देते हैं। 

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