06 सितंबर 2015

धर्म की कोख हत्याओं से भरी है

प्रो. मालेशप्पा मादिवलप्पा कलबुर्गी पर प्रणय कृष्ण
अपने समय के समाज के बारे में बसवेश्वर अपनी बहन नागलम्बिका से कहते हैं,“….बहन, ऐसा प्रतीत होता है कि बुरे लोगों के समाज में जो निकृष्टतम होते हैं , वे ही नेता होते हैं. इन्हें लगता है कि वे धर्म के नाम पर कुछ भी कर सकते हैं , यदि उनके पास थोड़ा पैसा हो और कुछ दुष्ट अनुयायी हों. लेकिन वे दिन दूर नहीं जब ये पैसा , ये पुजारी और उनके अनुयायी इस मठ की मृत्यु का कारण बनेंगे. ” (श्री कलबुर्गी के नाटककेट्टिटू कल्याण’ (कल्याण का पतन) के बसवराज नायकर कृत अंग्रेजी अनुवाददि फॉल ऑफ़ कल्याण’, पृष्ठ २९ से उद्धृत)
जान पड़ता है कि ३० अगस्त के दिनधर्म के नाम परकुछ भी कर गुजरने का हौसला रखने वालों ने पैसे और दुष्ट अनुयायियों के बल पर भाड़े के हत्यारों से प्रो. कलबुर्गी की ह्त्या करा दी. ‘मूर्ति पूजा की निंदा के चलते ही संभवतः प्रो.कलबुर्गी की ह्त्या हुई’- ऐसा समाचार पाकर ३० अगस्त की रात एक साथी ह्त्या से आक्रोशित होकर मुझे फोन पर कह रहे थे, “आज दयानंद होते या बिल्ले-सुर बकरिहा लिखनेवाले निराला, तो उन्हें भी ये लोग मार डालते.”

श्री कलबुर्गी का जीवन-दर्शन
जो जड़ है वह नष्ट हो जाता है, जो गतिमान है, वह नष्ट नहीं होता’ , यह पंक्ति प्रो. कलबुर्गी के लिखे बसवन्ना के जीवन पर आधारित नाटककेट्टितू कल्याण’ (कल्याण का पतन) में बार-बार टेक की तरह दोहराई जाती है. इन पंक्तियों में श्री कलबुर्गी का जीवन-दर्शन गूंजता है, जो सर्वाधिक १२ वीं सदी के क्रांतिकारी संत बसवेश्वर से प्रभावित रहा. इस नाटक में केवल बसवेश्वर का क्रांतिकारी जीवन और दर्शन , बल्कि श्री कलबुर्गी द्वारा उसकी समकालीन प्रासंगिकता की अद्यतन व्याख्या भी सुरक्षित है. जड़ता और यथास्थितिवाद की ताकतों ने भले ही उनकी ह्त्या कर दी, लेकिन उनके जीवंत और गतिमान विचार नष्ट नहीं किए जा सकते. बसवन्ना और उनके अद्भुत व्याख्याकार कलबुर्गी के जीवन और दर्शन की उल्लेखनीय समानताओं को ध्यान में रखते हुए ही शायद उनकी मृत्यु पर बंगलुरु के टाउन हॉल पर आयोजित विरोध-प्रदर्शन में एक प्रदर्शनकारी ने तख्ती पर लिख रखा था, ‘कल बसवन्ना थे, आज कलबुर्गी.” बसवन्ना भी अपने विचारों के लिए ही जिए और मरे.
कल्याण का पतननाटक तीन हिस्सों में बसव के जीवन और दर्शन के तीन सोपानों को प्रस्तुत करता है. कर्मकांड से अच्छे धर्म की ओर यात्रा बागेवाड़ी में, भौतिक प्रकृति से आध्यात्म की ओर कूडल संगम में और आध्यात्मिक संस्कृति से सामाजिक संस्कृति की ओर यात्रा कल्याण में पूरी हुई. बसव के जीवन-दर्शन की प्रो. कलबुर्गी द्वारा नाट्य-रूप में प्रस्तुत यह गतिमानता एक तरह से समूचे लिंगायत आदोलन की अंतिम परिणति के रूप में सामाजिक क्रान्ति के उद्देश्य को प्रस्थापित करती है.

सच के लिए सत्ता से टकराने वाले इतिहासकार
कलबुर्गी कन्नड़ साहित्य की दुनिया के उन महत्वपूर्ण लोगों में से थे जिन्होंने कर्नाटक क्षेत्र के इतिहास को प्रशिक्षित इतिहासकारों से भी अधिक दक्षता के साथ वैज्ञानिक ढंग से उद्घाटित किया. श्री कलबुर्गी, रहमत तारिकेरे, डी.आर.नागराज, एम. चिदानंदमूर्ति, एन. पी. शंकरनारायण आदि कन्नड़ साहित्यकारों का वैज्ञानिक इतिहास-लेखन में जैसा योगदान है, वैसा किसी आधुनिक भारतीय भाषा के साहित्य में नहीं मिलता. इसी साल जून में श्री कलबुर्गी ने एक भाषण में अपनी इतिहास-दृष्टि का मानो सार प्रस्तुत करते हुए कहा, “ ऐतिहासिक तथ्यों पर दो तरह के शोध-कार्य होते हैं . एक वह होता है जो सत्य की खोज पर समाप्त हो जाता है , दूसरा उसके आगे जाकर वर्तमान का पथ-प्रदर्शक बनता है.. जहाँ पहले किस्म का शोध-कार्य महज अकादमिक होता है , वहीं दूसरे वाले में वर्तमान का मार्ग-दर्शन होता है .वक्त का तकाज़ा है कि इन दूसरे किस्म के शोध-कार्यों पर जोर दिया जाए जो वर्तमान के सवालों से इतिहास से मिलने वाली सीख की रोशनी में रू--रू होते हैं.” वर्तमान की चुनौतियों से इतिहास के सम्बन्ध पर जोर देने के चलते ही वे समय समय पर धर्मसत्ता और राजसत्ता के प्रतिष्ठानों से टकराते रहे. अपने तार्किक और वस्तुवादी दृष्टिकोण के कारण खुद लिंगायत धर्म-प्रतिष्ठान से भी उनका टकराव होता रहा. बसवन्ना (जिनके जीवन और दर्शन के वे सबसे श्रेष्ठ व्याख्याता थे) के जीवन और रिश्तों के बारे में प्रचारित मिथकों की छानबीन और व्याख्या के ज़रिए उनके पीछे के ऐतिहासिक यथार्थ के उदघाटन के प्रयास में १९८९ में उन्हें लिंगायत समुदाय के रूढ़िवादियों का कोप झेलना पडा. उस समय भी उन्हें मार डालने की धमकियां दी गयी. मार्ग शृंखला की पुस्तकें जिनमें कन्नड़ साहित्य, इतिहास और संस्कृति से सम्बंधित उनके शोधपरक निबंध संकलित हैं, उसकी पहली पुस्तकमार्ग से उन्हें दो अध्याय लिंगायत मठाधीशों के दबाव में वापस लेने पड़े . इस घटना पर व्यथित होकर उन्होंने कहा था कीमैंने अपने परिवार की सुरक्षा के लिए यह किया, लेकिन इसी दिन मेरी बौद्धिक मृत्यु हो गयी.” क्षोभ में उन्होंने जो भी उस समय कहा ,लेकिन उनकी निर्भीक बौद्धिक यात्रा जारी रही. इसी शृंखला की पुस्तकमार्ग पर उन्हें साहित्य अकादमी अवार्ड २००६ में मिला. १९८९ में उनको मिली धमकियों के विरोध में भी अखिल भारतीय प्रतिवाद के स्वर उठे थे. इकनोमिक एंड पोलिटिकल वीकली के २० मई, १९८९ के अंक में सम्पादक के नाम पत्र में इस घटना पर प्रतिवाद जताते हुए सर्वश्री बिश्वरूप दास, सुधीर चन्द्र, लैसी लोबो, घनश्याम शाह, अर्जुन पटेल, एस.एस. पुणलेकर, सोनल श्रॉफ, परमजीत सिंह, अचिन विनायक, किरण देसाई, सत्यकाम जोशी, के.एस. रमण आदि बौद्धिकों ने लिखा था, “राजनीतिक निरंकुशता अकादमिक स्वतंत्रता के लिए खतरा है. धार्मिक मतान्धता की तानाशाही और रूढ़िवाद के साथ मिलकर इसने हमारेआधुनिकऔरसभ्ययुग में बौद्धिक कर्म को वैसा बना दिया है जैसा वह सुकरात और गैलीलियो के समय हो उठा था. फिर, श्री कलबुर्गी की प्रताड़ना की इस क्रूर विडम्बना से मुंह नहीं मोड़ा जा सकता कि उनके खिलाफ अभियान चलानेवाले महान क्रान्तिकारी संत बसव के अनुयायी हैं. क्या वे भूल गए हैं कि ये विचार की ही ताकत थी जिस के बल पर बसव ने अपने समय के रूढ़िवाद के आडम्बरों और गड़बड़ियों को बेनकाब किया था ? क्या वे खुद उसी रूढ़िवाद की स्थापना में लग गए हैं, जिसके खिलाफ बसव ने अपने समय में लड़ाई की थी और सुधारने की कोशिश की थी? अन्यथा उन्हें कलबुर्गी के साथ ईमानदार तार्किकता की भावना के साथ बहस करनी चाहिए थी, कि उन्हें संस्थाबद्ध धर्म की ताकत से खामोश करने की कोशिश.” १९८९ से २०१५ का भारत बहुत अलग है. अब धर्म की ताकत से खामोश करने से आगे जाकर बन्दूक के बल पर बौद्धिकों और तर्कनिष्ठ लोगों को खामोश करने का अभियान संचालित है. श्री दाभोलकर, कामरेड पानसारे और कलबुर्गी महोदय को पिछले तीन सालों में इसी तरह से खामोश किया गया. वह इतिहास कैसा होगा जिसमें तथ्य का ही गला घोंट दिया जाए? वह विज्ञान कैसा होगा जिससे तर्क गायब हो? वह अकादमी कैसी होगी जिसमें विचारों की सरे-राह ह्त्या हो? यह सवाल आज के भारत में जिस तरह विकराल मुंह बाए खड़े हैं, वैसे कभी थे.
सन २०१२ में कर्नाटक सरकार के संस्कृति मंत्रालय ने प्रो. कलबुर्गी को उस समिति का प्रमुख बनाया जिसे आदिलशाही वंश के अधीन रचे गए समस्त साहित्य को कन्नड़ में लाने का कार्यभार सौंपा गया. उर्दू, फारसी और अरबी में उपलब्ध इस प्रभूत साहित्य का संरक्षण इसलिए भी आवश्यक है कि बीजापुर के इतिहास की बेशुमार जानकारियों इनमें मौजूद हैं. इनका साहित्यिक मूल्य भी कुछ कम नहीं. भाषाविद, संस्कृति के अध्येता, लोक साहित्य के विशेषग्य और शिलालेखों, ताम्रपत्रों आदि के पाठ में महारत प्राप्त अग्रणी इतिहासकार होने के कारण ही उन्हें यह जिम्मा दिया गया. श्री कलबुर्गी आदिलशाही वंश को दक्कन के पठार में सांस्कृतिक एकता और धार्मिक सहिष्णुता का अलमबरदार मानते थे और इब्राहीम आदिलशाह को उन्होंनेदक्षिण भारत का अकबरबताया था. उन्होंने मुहम्मद कासिम फ़रिश्ता कीगुलैन- - इबाहिमीऔर काजी नूरुल्ला कीतारीख--आदिलशाहीसहित २० पुस्तकों का अनुवाद पहले चरण में पूरा करने का जिम्मा लिया था और जीवन के अंतिम दिनों में इस काम में लगे हुए थे. प्रो. कलबुर्गी के अनुवादों का सम्पादन कर रही लेखिका एम. एस. आशा का कहना है कि उनकी अगली रचना १२ वीं सदी से १६ वीं सदी के बीच कन्नड़ में स्त्री लेखन के विलुप्त होने के कारणों की खोज पर केन्द्रित थी, जिस दौर में लिंगायतों के बीच उभरे पुरोहित वर्ग ने वचन परम्परा के साहित्य का दमन किया था.

शरणों की विवेकवादी परम्परा के वाहक
४५० से भी ज्यादा संतों की वाणियों को अथक शोध के माध्यम से १५ खण्डों मेंसमग्र वचन सम्पुटमें संकलित किया गया है. प्रो. कलबुर्गी के सम्पादन से इन खण्डों की शुरुआत हुई. जिसवचन साहित्यके महान अध्येता प्रो. कलबुर्गी थे, उसमें क्या कहा गया है? क्या इन संतों ( शरण और शरणियों) ने वेदों पर व्यंग्य नहीं किया, कर्मकांडों का उपहास नहीं किया? क्या देवी- देवताओं की उपासना का तिरस्कार नहीं किया? उनकी ह्त्या के बाद भी जिस तरह विश्व हिन्दू परिषद् के प्रतिनिधि टी.वी. चैनल पर श्री कलबुर्गी पर देवीदेवताओं के तिरस्कार का आरोप लगा रहे थे और प्रकारांतर से लोगों के विक्षोभ के बहाने उनकी हत्या के औचित्य का संकेत कर रहे थे, क्या वे बसवन्ना, अक्क महादेवी, अल्लम प्रभू, चेन्न बसवन्ना, दोहर काकय्या, चेन्नैया, सिद्धरमा, गणचार और सैकड़ों शरणों और शरणियों से अतीत में जाकर बदला लेंगे? नीचे हम प्रतिष्ठित ग्रंथों से शरणों के वचन साहित्य के कुछ उद्धरण दे रहे हैं. इन्हें पढ़कर कोई बताए कि कर्मकांड, मूर्तिपूजा और पाखंड के खिलाफ इससे अधिक क्या कुछ कहा जा सकता है? क्या श्री कलबुर्गी इससे इतर या इससे बढ़ कर कुछ कहते हैं?
. बसवेश्वर कहते हैं, ” गोबर के गणेश को चम्पा के फूल से पूजें तो भी वो अपनी बदबू नहीं छोड़ता” ( . श्री. मुगलि, कन्नड़ साहित्य का इतिहास, नयी दिल्ली, १८७१, पृष्ठ ९३, भारतीय संस्कृति और हिन्दी प्रदेश भाग -, ले. रामविलास शर्मा पृष्ठ ११९ से उद्धृत, किताबघर, नयी दिली, २००९)
. बसवेश्वर के काफी बाद संभवतः १५ वीं सदी के कवि वेमना का कहना है , “क्या बार बार स्नान करने से मुक्ति प्राप्त हो जाती है? तो उस हालत में सब मछलियाँ मुक्तिप्राप्त हैं. अगर माथे पर राख मलने से मुक्ति मिलती हो तो गधा राख में ही लोटता है. अगर शाकाहार से ही शारीरिक पूर्णता मिलती हो तो बकरी तुमको मात देगी. यदि शूद्र का लड़का शूद्र ही हो तो ब्राह्मणोत्तम के रूप में वशिष्ठ की कैसे पूजा कर सकते हो? क्या वह शूद्र स्त्री उर्वशी के पुत्र नहीं थे?.. अगर अछूत स्त्री के पति को भी अछूत समझा जाए, तो वशिष्ठ के बारे में तुम कैसे गर्व कर सकते हो?क्या उनकी पत्नी अरुंधती अछूत नहीं थी? जब तुम कोई वैदिक कर्मकांड करते हो, या तीर्थस्थान पर जाते हो, तो मुंडन करने के लिए नाई सर पर पानी छिड़कता है. कोई नहीं कह सकता कि पुरोहित के पानी ने चमत्कार किया या नहीं पर नाई के पानी ने काम किया, यह दिखने के लिए मुड़ा सर गवाही दे रहा है .” ( . श्री. मुगलि, कन्नड़ साहित्य का इतिहास, नयी दिल्ली, १८७१, पृष्ठ ५२ , भारतीय संस्कृति और हिन्दी प्रदेश भाग -, ले. रामविलास शर्मा पृष्ठ १२२ से उद्धृत, किताबघर, नयी दिली, २००९) -
. शिवशरणी काळव्वे अपने एक पद में पूछती हैं-
मुर्गी-बकरी छोटी मछली
खाने वालों को कुलश्रेष्ठ कहते हो,
शिवजी को पंचामृत दूध देनेवाली
गाय खानेवालों को हीन जाति कहते हो,
कैसे वे हीन जाति, कैसे ये कुलश्रेष्ठ हैं?”
(‘बारहवीं सदी की कन्नड़ कवयित्रियाँ और स्त्री- विमर्श’- ले. काशीनाथ अम्बलगे, पृष्ठ ७३)
इन्हीं वचनकारों और शरणियों की विवेकवादी परंपरा के वाहक थे श्री कलबुर्गी. आश्चर्य है कि वीरशैव आन्दोलन से काफी पहले से लिखे जा रहे सूत्रों और स्मृतियों में शूद्रों, अन्त्यजों, स्त्रियों के बारे में जो कुछ कहा गया, अंतरजातीय विवाह करनेवालों को भीषण प्रताड़ना के जैसे निर्देश वहां दिए गए हैं, उन्हें लेकर कोई धर्मध्वजावाहक आज भी आहत नहीं होता, जबकि शरण परम्परा के वचनों के व्याख्याता को सहना इन लोगों के लिए आज भी मुश्किल हो रहा है.
लिंगायत मत ने एक हजार साल से भी पहले वैदिक प्राधिकार, जाति-भेद, चार आश्रमों और चार वर्णों की व्यवस्था, बहुदेववाद, पुरोहितवाद, पशु-बलि, आत्म-बलि, सती-प्रथा, कर्मों के बंधन, ईश्वर और आत्मा के द्वैत, मंदिर- पूजा, छूत- अछूत, स्वर्ग और नरक की धारणाओं का खंडन किया. इस आन्दोलन की ऊर्जा और प्रेरणा आज भीवचन साहित्ययाशरण साहित्यमें सुरक्षित है, जिसे श्री कलबुर्गी किसी भी धर्म-ग्रन्थ या पूजा-पद्धति के मुकाबले आज भी सामाजिक प्रगति के लिए प्रासंगिक पाते हैं. गद्य-पद्यमय शरण साहित्य के रचयिताओं ने संगठित धर्मों कोसत्ता-प्रतिष्ठानमाना. उनकी निगाह में ये जड़ संस्थाएं थीं जो मनुष्य को सुरक्षा और सुनिश्चित भविष्य का वायदा करती थी, जबकि शरणों के लिए धर्म गतिमान, स्वतःस्फूर्त और मुक्ति के सौदों से मुक्त था. अल्लम प्रभू के अनुसार, “गरीबों को भोजन दो, सत्य बोलो, प्यासों के लिए प्याऊ बनवाओ, नगर के लिए पानी की टंकियां बनवाओ. तुम मृत्यु के बाद स्वर्ग चले जाओगे, लेकिन हमारे परमात्मा के सत्य के नज़दीक भी नहीं पहुँच पाओगे. जो मनुष्य हमारे इष्ट को जानता है, उसे बदले में कुछ मिलता नहीं. ”
दुर्भाग्य से समय बीतने के साथ जैसा कि बहुत से क्रांतिकारी धार्मिक आन्दोलनों के साथ इतिहास में होता रहा है, वीरशैव मत में अनेक ऐसी चीज़ों का दाखिला होता गया जिनका बसवेश्वर ने निषेध किया था. मंदिर-पूजा बहाल हुई जिसके बारे में बसवेश्वर ने कहा था
धनवान शिवमन्दिर बनवाते हैं,
मैं गरीब मैं क्या कर सकता हूं।
मेरे पैर ही मिनार, शरीर ही मन्दिर,
सिर ही सोने का मुकुट है,
कूडल संगमदेव ! जड़ नाशमय है चेतन अविनाश है।
( ‘बसवेश्वर’- ले. काशीनाथ अम्बलगे, पृष्ठ १६)
कर्मकांड वापस आए, गुरु को शिष्य द्वारा भेंट देने की परम्परा वापस आई, सामाजिक स्तर-भेद पैदा हुए और जंगम वरीयताक्रम के अंतर्गत गुरु-शिष्य सम्बन्ध का नितांत व्यक्तिगत होना संस्थाबद्ध हुआ. जिस लिंगायत आन्दोलन के तहत बसवन्ना ने ब्राह्मण युवती और मोची युवक की शादी कराई क्योंकि दोनों ही लिंगायत थे, वह आन्दोलन रह कर बाद में स्वयं एक जाति बन गया. लिंगायत आन्दोलन और विचार का धर्म के रूप में संस्थाबद्ध होना तो मध्यकाल से ही चली आती परिघटना है, लेकिन वर्तमान समय में भारतीय लोकतंत्र की प्रतियोगी राजनीति ने जिस तरह जातियों को वोट में तब्दील किया उसके चलते विचारों पर आधारित सामाजिक समूहों ने भी वोटों का संख्याबल एकत्रित करने के लिए जाति के रूप में नयी आत्म-परिभाषा रची. लिंगायत आन्दोलन का जातिकरण इसी रास्ते हुआ जो आधुनिक परिघटना ही है. श्री कलबुर्गी ने गैर-बराबरी और शोषण पर आधारित राजसत्ता और धर्मसत्ता के द्वारा वीरशैव मत के आत्मसातीकरण का विरोध करना जारी रखा. उनके अनुसार वीरशैव मत में वैयक्तिक साधना या मुक्ति अथवा वैयक्तिक उन्नति के लिए जगह नहीं थी, बल्कि सामाजिक मुक्ति ही उसका मुख्य ध्येय है. अपनी इस धारणा के चलते वीरशैव मत के जंगम सम्प्रदाय जहां वैयक्तिक मुक्ति पर बल है, उसके पञ्च पीठों से भी उनका विरोध का रिश्ता रहा. ‘कल्याण का पतननाटक में बसवेश्वर का संवाद है, “ सार्वभौम अनुभव और कुछ नहीं, बल्कि अध्यात्मिक अनुभव का सामाजीकरण है. हर व्यक्ति को सार्वभौम अनुभव होना चाहिए लेकिन यह जनता के लिए तब तक संभव नहीं जब तक वह पुरानी व्यवस्था को नष्ट करके नयी व्यवस्था कायम नहीं करती. (‘दि फॉल ऑफ़ कल्याण’, पृष्ठ ३३ ) सामाजिक मुक्ति की धारणा पर बल देने के लिए श्री कलबुर्गी १२ वीं सदी के शरण आन्दोलन को भक्ति आन्दोलन से भी भिन्न बताते हैं. इसी साल जून महीने में (पहले भी उद्धृत) एक भाषण में उन्होंने कहा, “ भक्ति आन्दोलन ने वैयक्तिक मुक्ति और व्यक्ति के दैवीकरण पर जोर दिया. लेकिन शरण आन्दोलन ने सामाजिक बदलाव पर बल दिया. भक्ति आन्दोलन व्यक्ति की बेहतरी तक सीमित रहा जबकि शरण आन्दोलन ने सामाजिक प्रगति के लिए प्रयास किया.” संभव है कि उनका यह कथन हम में से भी कुछ को अटपटा लगे, क्योंकि हम हिन्दी-उर्दू भाषी क्षेत्र के लोग कबीर के सामाजिक विचारों से परिचित हैं. लेकिन बसवेश्वर कबीर से भी दो शताब्दी पहले पैदा हुए थे और सैकड़ों शरणों, शरणियों का समूचा वचन साहित्य सामाजिक क्रान्ति के विचार से ओत-प्रोत है. भक्ति आन्दोलन से उनकी भिन्नता और समानता के बिंदु हम तब तक ठीक से नहीं समझ पाएंगे जब तक हम इस पूरे साहित्य का अवगाहन करें. यह वचन साहित्य अधिकाँश में अछूत, शूद्र आदि कही जानेवाली जातियों के संतों और स्त्री संतों द्वारा रचा गया, जबकि उसके आदि-प्रणेता बसवन्ना स्वयं ब्राह्मण कुल में पैदा हुए थे. श्री कलबुर्गी ने पारंपरिक धर्मसत्ता और पूंजीवादी राजसत्ताओं द्वारा वीरशैव आन्दोलन को उसकी सामाजिक क्रान्ति की चेतना और विवेकवादी परम्परा से काट कर अपने हित में आत्मसात किए जाने के विरुद्ध जो संघर्ष छेड़ रखा था, उसी संघर्ष में लगे उनके एक सहयोगी जाने-माने लेखक और पत्रकार लिंगानासत्यमपेटे की करीब तीन महीने पहले गुलबर्गा में हत्या कर उनके शव को गटर में फेंक दिया गया. पिछले साल १२ जून को संघ परिवार के नेताओं आर.एस.मुतलिक, एस. एल. कुलकर्णी, प्रमोद कट्टी, मुकुंद कुलकर्णी, अनिल पोतदार आदि ने बंगलुरु में श्री कुल्बर्गी के मूर्ति-पूजा के खिलाफ दिए गए बयानों को हिन्दू भावनाओं को आहत करनेवाला बताते हुए उनके खिलाफ कार्रवाई की मांग की थी. हाल ही में उन्होंने लिंगायतों को हिन्दू धर्म से अलग बताया जिसने राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ को और भी नाराज़ किया. नाराजगी सिर्फ आस्था और ज्ञान की व्याख्या को लेकर नहीं थी, बल्कि उसका ठोस राजनीतिक परिप्रेक्ष्य यह था कि भाजपा का कर्नाटक में बड़ा आधार ब्राह्मणों के अलावा लिंगायत समुदाय से आता है. भाजपा के मुख्यमंत्री २००४ में येदुरप्पा ही बनाए गए जो लिंगायत समुदाय से आते हैं.
लेकिन श्री कुलबर्गी ने किसी तात्कालिक राजनीतिक कारणों से यह वक्तव्य नहीं दिया था. यह उनका मत पहले से ही था जिसके ठोस ऐतिहासिक और तार्किक सन्दर्भ हैं. वचन साहित्य के संग्रहसमग्र वचन सम्पुटके पहले पांच खण्डों में ही वेदों और यहाँ तक कि वेदान्त के विरोध में शरण और शरणियों के बहुतेरे पद मिल जाएंगे, जिनका स्वर तीखा है. डा. एन. जी. महादेवप्पा ने वैदिक प्राधिकार, बहुदेववाद, वैदिक कर्मकांड, ब्राह्मण पुरोहितों, जाति-प्रथा, संन्यास, तीर्थाटन, मंदिर पूजा आदि का निषेध करने के चलते वीरशैव मत को हिन्दू धर्म से अलग माना है.
(देखें http://lingayatreligion.com/Lingayat/Lingayatism_An_Independent_Religion.htm) महज ब्रहम और जीव की एकता के सिद्धांत के चलते अनेक लोग वीरशैव मत को व्रेदांत के विशिष्टाद्वैत मत के अधीन रखते हैं, लेकिन अद्वैत मत का सिर्फ एक ही स्रोत या परम्परा हो, यह आवश्यक नहीं. महादेवप्पा के अनुसार, ” यह एक आम गलतफहमी है कि लिंगायत मत उस शैव मत की ही एक उप-धारा है, जो शैव मत स्वयं हिन्दू धर्म का ही एक सम्प्रदाय है और यह भी कि लिंगायत शूद्र होते हैं. लेकिन पाठगत साक्ष्य और तर्क पर आधारित सत्य यही है कि लिंगायत मत हिन्दू धर्म का सम्प्रदाय या उप-सम्प्रदाय नहीं, बल्कि एक स्वतन्त्र धर्म है.”
वास्तव में भारत में हिन्दू धर्म के भीतर भी सुधार आन्दोलन बार-बार चले और उसके बाहर भी. मध्य-युग का भक्ति आन्दोलन और आधुनिक युग में आर्यसमाज, ब्रहम-समाज आदि भीतर चले आन्दोलनों के उदाहरण हैं. लेकिन अनेक बार समाज-सुधारक इस निष्कर्ष पर भी पहुंचे कि रूढ़ियाँ इतनी बलबती हैं कि भीतर सुधार की गुंजायश नहीं है. आचार-रीति आदि ही नहीं बल्कि दर्शन के स्तर पर भी हिन्दू मुख्यधारा से भिन्न आन्दोलन चार्वाक, लोकायत, बौद्ध, जैन आदि हैं. कलबुर्गी और महादेवप्पा आदि विद्वान लिंगायत को भी इसी श्रेणी में रखते हैं. आधुनिक युग में पेरियार और आम्बेडकर के आन्दोलन भी स्वघोषित रूप से इसी श्रेणी के हैं. यह एक बहुत बड़ी परम्परा है जो हिंदुत्व की मुख्यधारा में पड़ते हुए भी भारतीय है. आज प्रो. कलबुर्गी की शहादत के अवसर पर उनकी प्रेरणा को स्थायी बनाने के लिए नए किस्म की भारतीयता को आकार देने का सांस्कृतिक- सामाजिक संघर्ष भी उतना ही ज़रूरी है जितना कि राजनीतिक स्वतंत्रता और आर्थिक बराबरी का. आज भी जब हम अंतरजातीय और अंतर-धार्मिक प्रेम और विवाह करनेवाले युवक-युवतियों की ह्त्या होते देखते हैं तो गौतम, वशिष्ठ और मनु के वे सूत्र याद आते हैं ( देखें – ‘धर्मशास्त्र का इतिहास- पी. वी काणे) जिनमें नीचे और ऊंचे कुल के बीच होनेवाले विवाहों के लिए विवाह करनेवाले स्त्री या पुरुष को मृत्युदंड देने के भयावह तरीकों का विधान किया गया है. वहीं बसवेश्वर को याद कीजिए जो ब्राह्मणी युवती और मोची युवक का विवाह कराते हैं और स्वयं उसका परिणाम भुगतते हैं. खुद सोचिए किस रास्ते आप नए भारत को ले जाना चाहेंगे.

मातृभाषा में मौलिक चिंतन का प्रतिमान
प्रो. कलबुर्गी १९८० के दशक के कन्नड़ भाषा आन्दोलन ( गोकाक आन्दोलन) के अग्रणी लोगों में थे. कन्नड़ अभिनेता डा. राजकुमार उसके सर्वमान्य नेता थे और शायद ही कोई महत्वपूर्ण कन्नड़ लेखक उस समय ऐसा रहा हो जो आन्दोलन में शामिल रहा हो. श्री कल्बुर्गी आन्दोलन के प्रथम सत्याग्रहियों में थे. उन्होंने १०३ पुस्तकें लिखीं और यह साबित किया कि आज के समय में भी मातृभाषाओं में चिंतन और शोध के उच्चतम शिखर छुए जा सकते हैं. ख़ास कर उनकी रचनाएं अंग्रेज़ी में नहीं मिलतीं, अनूदित रूप में भी बहुत कम मिलती हैं. उन्होंने अपने कई यशस्वी समकालीन कन्नड़ लेखकों जैसे .के. रामानुजन की तरह मातृभाषा और अंग्रेज़ी दोनों भाषाओं में एकसाथ नहीं लिखा. प्रायः रचनात्मक साहित्य तो मातृभाषाओं में रचा जाता है लेकिन वैदुषिक साहित्य को अंग्रेज़ी जैसी विश्व-भाषा में रचने का भारत में चलन है, ख़ास कर शिखर विद्वानों के बीच. श्री कलबुर्गी ने इसे स्वीकार नहीं किया. वे मातृभाषाओं में शिक्षा देने के प्रबल हिमायती थे और हाल ही में उन्होंने कर्नाटक सरकार से मांग की थी कि वह केंद्र सरकार से अपनी भाषा नीति स्पष्ट करने को कहे.
मित्रों, प्रो.कुलबर्गी, कामरेड गोवेंद पानसारे और डा. दाभोलकर की हत्याएं तथा पाकिस्तान और बांग्लादेश में परिपाटी से हट कर मुक्त विचार रखनेवालों की हत्याएं यह बताती हैं कि सही और सच्चे विचारों से क़ानून, राजनीति और विचारधारा के स्तर पर निपट पाना धर्मसत्ता, राजसत्ता, पितृसत्ता, पूंजी की सत्ता और वर्ण-व्यवस्था की सत्ता के व्यापक गठजोड़ के बावजूद इन ताकतों के लिए मुश्किल पड़ रहा है. इसीलिए व्यक्तिगत हत्याओं का सहारा लिया जा रहा है. नए भारत की खोज के लिए शहीद हुए इन अग्रजों के उसूलों और विचारों को आम जनता के बीच रचनात्मक प्रयासों से लोकप्रिय बनाना ही वह कार्यभार है जो उस लोकजागरण के लिए ज़रूरी है जिस के लिए वे जीवन भर संघर्षरत रहे और जो भारत के भविष्य की एकमात्र आशा है.

22 टिप्‍पणियां:

  1. Yeh dharmik unmad kisi ko maf nahi karega. yeh ISIS ka Hindu sanskaran lagta hai.

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