10 अक्तूबर 2015

अफ़वाहों से बचिए और अपना पक्ष तय कीजिए

-दिलीप ख़ान
पहले बिसाड़ा में मोहम्मद अख़लाक़ की हत्या हुई, उसके बाद बिहार चुनाव में ये चुनावी मुद्दा बना। अब धीरे-धीरे मसला जब पेंदी में बैठने लगा था तो एक बार फिर मैनपुरी में चार लोगों को बुरी तरह पीटा गया। इस बार जान नहीं गई, लेकिन सिर्फ जान ही बची। दर्जन भर से ज़्यादा उन दुक़ानों को ख़ाक कर दिया गया, जिनके मालिक मुस्लिम थे। आरोप वही। एक ख़ास तरह की भीड़ ने उन चारों पर ये आरोप लगाया कि वो गोहत्या करने के बाद गाय की खाल उतार रहे थे!  

आज-कल जो माहौल बना है, वहां ठहरकर सोचने का स्पेस ख़त्म होता जा रहा है। अफ़वाह फैली और जान लेने की कोशिश शुरू हो गई। पुलिस इस बार जैसे-तैसे जान बचाने में क़ामयाब रही। फिर हुआ क्या? कुछ गाड़ियां जलीं और कुछ दुकानें, कुछ लोग बुरी तरह पीटे गए। लेकिन 'भीड़' शांत नहीं है। वो कहीं और इसी मुद्दे पर फिर जमा होगी। मोबाइल भीड़ जहां-तहां एक ही मुद्दे पर एक ही तरह की हरकत कर रही है। बिना प्रमाण के, बिना किसी ठोस वजह के।

अख़लाक़ के घर में तो अब साबित हो चुका है कि गोमांस नहीं था। गोहत्या का भी कोई मामला नहीं था। फ्रिज़ में जो था उसके लिए कभी दंगे की नौबत देश में नहीं आई। अख़लाक़ के घर में मटन था, बीफ़ नहीं। पुलिस की रिपोर्ट ये बता रही है। मैनपुरी में जो घटा, वो भी लगभग अख़लाक़ की कहानी का दोहराव है। पुलिस बता रही है कि मरी हुई गाय को कुछ हिंदुओं ने कुछ मुसलमानों को बेच दिया और वे उसकी खाल उतार रहे थे। बस्स, खाल उतारने की दिमाग़ में कौंधी तस्वीर धीरे-धीरे गोहत्या के अफ़वाह में तब्दील हो गई और उस 'भीड़' को फिर से मौक़ा मिला कथित धर्मरक्षा के नाम पर चार लोगों को मौत के घाट उतारने की हर मुमकिन कोशिश करने का।

अफ़वाहों के दौर में भीड़ की बौद्धिकता लगातार कम होती जाती है। जब भी अफ़वाहों के आधार पर कोई समूह रिएक्ट करता है तो वो तार्किक तरीके से सोचने की अपनी सारी शक्ति ख़ुद से बाहर छोड़ आता है। लोग मौक़े के मुताबिक़ रिएक्ट करते हैं। आम तौर पर उनके दिमाग़ में एक तस्वीर बनती है और वो तस्वीर अचानक कई तस्वीरों को जन्म देती हैं, जिनमें आख़िरी तस्वीर का पहले के साथ कोई रिश्ता हो, ये ज़रूरी नहीं।
बूचड़खाना खोलने के लिए संगीत सोम की दरख़्वास्त

दादरी और मैनपुरी में जो कुछ हुआ या आगे कहीं और होने वाला है, वो हमारे सामने क्या चुनौती पेश कर रहा है? क्या इन तमाम लोगों का उसका कोई ठोस राजनीतिक रुझान नहीं है? क्या ये महज अफ़वाहों के शिकार लोग हैं और ये अप्रत्याशित तौर पर धर्म रक्षा के जज़्बे से इन घटनाओं को अंजाम दे रहे हैं? अगर हां, तो फिर इन्हें ठहरकर दो मिनट सोचना चाहिए कि फिर वे कौन लोग हैं जो इनको ऐसी करतूत के लिए उकसाते हैं? दो मिनट के लिए भूल जाइए कि सारे के सारे एक ख़ास राजनीतिक समूह से सीधे तौर पर जुड़े लोग ही हैं। हो सकता है आप योजनाकारों में शामिल ना हों, हो सकता है कि आप हमलावर भी ना हों, लेकिन अगर आप इन हमलों को वैध क़रार देते हैं तो उनसे अलग भी नहीं है।

सवाल ये है कि गोमांस और गोहत्या को किस तरह देखा जाए? ठीक है कि ये किसी एक धर्म के लोगों के लिए आस्था का मसला है, लेकिन क्या अपने धर्म के मुताबिक़ दूसरों को भी ज़बर्दस्ती जीने लायक बनाकर छोड़ेंगे आप? दादरी में अगर अख़लाक़ के घर में मटन की जगह बीफ़ होता तो क्या होता? क्या फिर वो हत्या वैध हो जाती? बीफ़ रखना या खाना उत्तर प्रदेश में प्रतिबंधित नहीं है, गोहत्या ज़रूर प्रतिबंधित हैं। इस तरह अगर किसी के प्लेट में बीफ़ है तो वो किसी भी तरह क़ानून का भी उल्लंघन नहीं कर रहा। दूसरी बात, अगर उल्लंघन कर भी रहा है तो आपको कोई हक़ नहीं है कि किसी की जान ले लें।

जिस पार्टी के लोग अख़लाक़ की हत्या में आरोपित हैं और जिस पार्टी का एक नेता मुज़फ़्फ़रनगर दंगे का आरोपी है, उनकी निजी ज़िंदगी कैसी है? संगीत सोम का एक हलफ़नामा अब मीडिया में तैर रहा है जिसमें वो बूचड़खाना खोलने के लिए सरकार से लाइसेंस की मांग की थी। तो आर्थिक फ़ायदे के लिए संगीत सोम को बूचड़खाना खोलने से कोई परहेज नही है, लेकिन राजनीतिक फ़ायदे के लिए अख़लाक़ पर गोहत्या का आरोप लगाकर उसकी हत्या को वैधता देने में हैं। राजनीतिक फ़ायदा इसमें है कि वो सभी आरोपितों के पक्ष में बयान दें। जो बीजेपी देश भर में घूम-घूम कर बीफ़-बीफ़ चिल्ला रही है उसी बीजेपी की गोवा सरकार ने मार्च महीने में बीफ़ की क़िल्लत देखते हुए महाराष्ट्र और कर्नाटक से बीफ़ आयात करने का फ़ैसला किया। गोवा में रोज़ाना 30 से 50 हज़ार किलोग्राम बीफ़ की खपत होती है। जो नरेन्द्र मोदी लोक सभा चुनाव में पिंक रिवोल्यूशन का नारा देते फिर रहे थे, उसी नरेन्द्र मोदी के शासन में भारत दुनिया में बीफ़ का सबसे बड़ा निर्यातक बन गया।

उनको अफ़वाहों से फ़ायदा है, उनको इस बात से फ़ायदा है कि धार्मिक तौर पर लोग गोलबंद हो जाए। हम-आप जो 60-70 साल से किसी इलाक़े में बिना दंगा-फ़साद के साथ रह रहे हैं, उसके लिए क्या फ़ायदा? एक दिन की घटना के बाद गहराए जख़्म को भरने में दशकों लग जाएंगे। मुज़फ़्फ़रनगर पहले ऐसा कहां था? फ़रीदाबाद की घटना याद कीजिए। वहां भी गांव छोड़कर जाना पड़ा था। दादरी के बिसाड़ा गांव में जब मोहम्मद अख़लाक़ की हत्या हुई तो उसके बाद भी पड़ोसी गांव में मांस का टुकड़ा पुलिस ने बरामद किया। यानी पूरे इलाक़े में नियोजित तरीके से मांस के नाम पर दंगा भड़काने की कोशिश जारी है। ऐसे में हमें-आपको तय करना है कि किस तरफ़ रहेंगे? वो तो मोहम्मद अख़लाक़ का एक बेटा एयरफोर्स में हैं, इसलिए देशभक्ति का सर्टिफिकेट नहीं मांगा जा रहा, नहीं तो जो माहौल है, वैसे में किसी भी मुस्लिम पर कोई भी आरोप लगा दें, सफ़ाई आरोप लगाने वालों को नहीं उस व्यक्ति को देनी होती है जिस पर आरोप लगा है। बाद में आरोप ग़लत साबित हो जाए तो भी आरोप दाग़ने वालों की कोई ज़िम्मेदारी तय नहीं होती।


संगीत सोम और संजीव बालियान जैसे नेता देशभक्त हैं। गिरिराज सिंह बीफ़ और मटन की तुलना बहन और पत्नी से कर रहे हैं। यानी स्त्री को मांस के बराबर तौल रहे हैं। ये क्या स्लिप ऑफ टंग है या राजनीतिक परवरिश? ये लोग लगातार देशभक्त बने रहेंगे। देशभक्ति के ऐसे माहौल में देशभक्तों की पहचान बहुत ज़रूरी हो गई है। 

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